कुछ नहीं पहचान रह गया है आदमी का
इस कदर ईमान खो गया है आदमी का
खुद नाम काम घर को बेचता है सरे-आम
बस दो टके का दाम रह गया आदमी का ||
मैला नहीं लिबास हम तो मैले हो गए
काफिलों के बीच में भी अकेले हो गए
सत्य,अहिंसा,न्याय-सेवा के व्रती को
जान न पाया तो मैय्यत है आदमी का ||
स्वांग का संयम बनाकर जी रहे हैं
पूत नद में सुरा भी सुरा को पी रहे हैं
सिद्धांत वसूलों का लबादा ओढ़ने से
कोई नहीं करतूत अब छिपा है आदमी का ||
माला जपते -जपते मालामाल हो गए हैं
सेवा- संकल्प लेकर संपतिपाल हो गए हैं
आदमियत के सीख देते -देते आदमखोर हो गए हैं
कर्म-ज्योति के तले कपटी कामचोर हो गए हैं
गिरगिट की तरह रंग बदलना फितरत है आदमी का
कुछ नहीं पहचान रह गया है आदमी का ||
-ऋषि कान्त उपाध्याय