''साहित्य समाज का दर्पण है''| यह कहना है आचार्य महावीर प्रसाद जी का | किसी काल या देश का सही चित्र यदि हम कही देख सकते है तो उसके लिए देश के साहित्य में झाँकना होगा | हिंदी साहित्य के इतिहास पर दृष्टी डालें तो स्पष्ट हो जायेगा की समय और समाज के परिवर्तन के साथ साथ साहित्य में भी परिवर्तन हुआ है | समाज के विचरों, भाव भावनाओं और परिस्थितियों का प्रभाव साहित्यकार और साहित्य पर निश्चित रूप से पड़ता है | इसलिए साहित्य का समाज दर्पण होना स्वाभाविक है | साहित्य अपने समय का प्रतिबिम्ब है |
साहित्य और समाज का संबंध कोई नया नहीं बल्कि बहुत पुराना है | समाज की शोभा उसकी यश सम्पन्नता एवं मन मर्यादा को साहित्य प्रतिबिंबित करता है | साहित्य और समाज भिन्न नहीं है | मानो समाज शरीर है तो साहित्य उसका आत्मा है | साहित्य हमारी ज्ञान पिपासा को तृप्त करता है | साहित्य हमारी बौद्धिक भूख मिटाता है | साहित्य के द्वारा हम अपने राष्ट्रीय इतिहास ,देश की संस्कृति और सभ्यता , पुर्खोंके अमूल्य विचार , प्राचीन रीतिरिवाज , रहन सहन और परम्परा का परिचय प्राप्त कर सकते है |
भारतीय साहित्य में हमारे पुरुखोंके श्लाघ्य कृत्य आज भी साहित्य द्वारा हमारे जीवन को प्रेरित करते है | वाल्मीकि , व्यास जैसे महाकवि भारतीय साहित्य की गौरव गरिमा है ,जिन्हें युगों बाद आज भी नवाजा जाता है | जिनका लिखा साहित्य आज भारतीयोंके ह्रदय सिंघासन पर विराजमान है |
साहित्य में जो शक्ति विद्यमान होती है वो तोफ तलवार में नहीं होती | भारतीय साहित्य सुखान्तवादी है | भारतीय साहित्य के नाटक भी अतंत्य सुखांत रहें है | इसलिए भारतीय साहित्य एक आदर्शवादी और आशावादी दृष्टिकोण रखता है |