परीक्षा का भूत
परीक्षा का भूत,हमें सोने नहीं देता है
मन ही मन रोता हूँ,पर रोने नहीं देता हैं
न भोजन अच्छा लगता है,न नीद आती है
पसीने छूटते हैं,जब परीक्षा की याद आती है
बहुत पढ़ने पर भी,तैयारी अधूरी लगती है
हमेशा रटने की,अब राग बेसुरी लगती है
रात में सोता हूँ ,अचानक नीद उचट जाती है
रोंगटे खड़े हो जाते हैं, आँखें फटी-सी जाती है
अजीब डर-सा लगता है हलचल होती मन में
कुछ खोया-सा लगता है जीवन होती उलझन में
ऐसा लगता है, सब कुछ खाली-खाली है
होली के प्रश्न को,समझता हूँ दीवाली है
तुरंत किताबें खोलकर,पढ़ने लगता हूँ
एक ही दिन में,एवरेस्ट चढ़ने लगता हूँ
परीक्षा में होली को,ईद-बकरीद लिखता हूँ
खिचड़ी हो जाती है,फिर भी संतुष्ट दिखता हूँ
इस समय न जाने,कैसे- कैसे सपने आते हैं
जिस नाव पर बैठता हूँ,वहीँ डूब जाते हैं
परीक्षा नाम लेते ही,धड़कने तेज हो जाती
ज्ञान की मोटी किताब,फटी पेज हो जाती
मन में बार-बार,कौंधता है यहीं विचार
जी-जान से मेहनत करूँगा अब की बार
ये कुदरत की माया है या परीक्षा-भूत का आतंक
जो बिना सिर-पैर के मारता रहता है डंक ||
-ऋषि कान्त उपाध्याय