Open Means Open Means
हाय रे!!महंगाई की मार कोई सुन ले करूण पुकार सौ रूपये किलो था दाल उसके बिना जनता बेहाल लगता है दाल में काला है सरकार के मुँह में ताला है राजनीति कुदरत का खेल आसमान पर चढ़ा है तेल चीनी-चावल-घी-अनाज महगाई की ओढ़े ताज अमीरों के घर में इठलाती है गरीबो को अंगूठा दिखलाती है वाह!प्याज का क्या कहना बिकता ऐसे जैसे गहना अस्सी रुपये किलो का बाज़ार भूखी ,प्यासी,जनता लाचार हरीसब्जी-फल-आलू के दाम कैसे भोग लगाये -राम!! बच्चे बिलख रहे खाने को घर -घर तरस रहा दाने को कोई न अब उपाय सूझता लगता जीवन का दीप बूझता चुनाव हुए तो मन हल्का था नई सरकार का तहलका था गरीबी -महंगाई दूर करेंगे जन- जन का हम पेट भरेंगे लेकिन यह मात्र छलावा था कुर्सी पाने का दावा था मुँह बाये आई महंगाई बच सको तो बच लो भाई …. - ऋषि कान्त उपाध्याय

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