अमृत गंगा -यमुना का पानी
कालिख-काई से भरी हुई है
अखंड भारत की गली-गली
अपराधों से हरी हुई है |
कहीं दहेज़ की चिता जल रही
पढ़े -लिखे के हाथ कटोरा है
कहीं भूख से टूटती देह पर
परिवार के बोझ का बोरा है|
मज़बूरी का दामन पकड़े
मासूमो का बचपन बीता
रामू सड़क पर भीख मांगता
पेट बांध कर सोती सीता |
अतुल्य भारत में अतिथि देव
भगवान की शोभा पाते है
अविश्वास की ऐसी धूल उड़ी
जो आने में सकुचाते है|
मुखौटा ओढ़े सब बैठे है
शौक या मजबूरी में
अपने दिल से पूछ जमूरे
किस इच्छा की पूरी में |
जो दिखता है सो बिकता है
बिक गई 'शीला के जवानी'
सीधी 'मुन्नी बदनाम' हो गई
घर-घर की यहीं कहानी |
गाँव-देश बाज़ार हो गया
जहाँ होता सबका सौदा
संबंधों का जड़ उखड रहा
पलता स्वार्थ का पौधा |