|| श्री ||
|| जीत का मन्त्र ||
किसी भी खेल को खेलने से पहले उसका अभ्यास करना होता है, और उस अभ्यास में यह सुनिश्चित नहीं की जीत ही हो पर हार ज़रुर हो सकती हैं, अत: जब तक हारना ही नहीं सीखेंगें या हार का स्वाद नहीं चखेंगें तब तक जीत का आधार कैसे निर्धारित होगा | हमारे मन में सदैव यह डर रहता है कि कहीं हार ना हो जाये, हमें इस हार के बुख़ार को अपने दिलो-दिमाग से निकालना होगा |
किसी पांडाल में बैठा हर व्यक्ति स्वयं को सबसे बड़ा खिलाड़ी समझता हैं एवं मैदान पर संघर्ष कर रहे खिलाड़ी पर अपने विचार/आलोचना/फ़िकरे कसता हैं और जब उस आलोचक को कहा जाय कि आओ मैदान पर आकर अपनी क्षमता का प्रदर्शन करो तो वह डर जाता हैं क्योंकि जब वह पांडाल में बैठकर खेल का आनंद ले रहा होता हैं तब तक वह मैदान पर खेल रहें खिलाड़ी की जीत को अपनी जीत तथा उसकी हार को अपना आत्मसमर्पण समझता है तथा खेल के इस अचानक वास्तविक आमंत्रण पर वह डर जाता हैं कि कही वह हार गया तो ?
बुज़ुर्गो ने यह काफी सोच समझकर ही कहा हैं कि दूर के पहाड़ सुहाने लगते हैं तथा पास जाने पर पाषाण की ठोकर के सिवाय कुछ नहीं मिलता हैं | खेल तो जीवन का हिस्सा हैं बल्कि यूँ कहें कि जीवन एक खेल हैं जिसमें किसी तरह का पुर्वानुमान
ख़ारिज हैं, इसमें बीत चुके क्षणों पर पश्चाताप व सुधार की कोई जगह नहीं वरन् इनसे सीख लेकर भविष्य को सुधारा जा सकता हैं | पूर्वाभ्यास ही जीत का आधार हैं, पूर्वाभ्यास के बाद कभी हार नहीं होती और यदि होती भी हैं तो उसकी जो आत्मसमर्पण कर देता हैं फलत: प्रतिद्वन्द्वी जीत जाता हैं, और किसी भी खेल को जीतने या हार को टालने के लिये सामने वाले की क्षमता का मूल्यांकन करना आवश्यक होता हैं |
खेल के मैदान में हर खिलाड़ी जीत की प्रबल इच्छा लेकर ही उतरता हैं, फिर चाहे वह आप हो या आपका प्रतिद्वन्द्वी क्योंकि हर मुकाबला/प्रतिस्पर्धा बराबरी पर समाप्त नहीं होती| जय-परजय के परिणामस्वरूप मलाल करने या खुशी में मद्मस्त होने से बेहतर हैं कि हार का मूल्यांकन और जीत का अवलोकन कर श्रेष्ठ बनने के द्वार खोले जाये |
असल जीत वहीं हैं जो किसी श्रेष्ठ के विरूद्ध प्राप्त की जाये तथा असल हार वहीं हैं जो किसी निम्न/अश्रेष्ठ या निर्बल के समक्ष मिली हो क्योंकि श्रेष्ठ के विरूद्ध संघर्ष से प्राप्त हार भी श्रेष्ठ कोटि के समकक्ष ही होती हैं |
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जीतेन्द्र कुमार चौपड़ा
जोधपुर (राज॰)
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