-------o चित्रलेखा o-------
बात राजा विक्रमादित्य के युग की है I क्या आप कहना चाहते हैं कि राजा विक्रमादित्य को नहीं जानते ? तो आइए मैं आपको सम्पूर्ण कथा सुनाता हूँ, परम गुणवान, चरित्रवान एवं पराक्रमी, राजाओं के राजा, चक्रवर्ती महाराज विक्रमादित्य की कथा I
सिंहासन बत्तीसी की दूसरी पुतली चित्रलेखा द्वारा कही कथा इस प्रकार है I एक बार की बात है, राजा विक्रमादित्य जंगल में शिकार खेल रहे थे I शिकार खेलते-खेलते वे एक ऊँचे पहाड़ पर आ पहुंचे I वहां पहुंचकर वे देखते हैं कि पहाड़ की चोटी पर बैठा एक सधु तपस्या में लीन है I साधु की तपस्या में कोई विघ्न न आए यह सोचकर विक्रम उन्हें श्रद्धापूर्वक प्रणाम कर वहां से लौटने लगे I जैसे ही उन्होंने मुड़कर चलना आरम्भ किया, पीछे से आवाज़ आई, "रुको राजन" I साधु की आवाज़ सुन विक्रमादित्य रुक गए तथा उनकी विनम्रता से प्रसन्न होकर साधु ने उन्हें एक फल भेंट में दिया और कहा, "जो कोई भी मानव इस फल को खाएगा उसे परम तेजस्वी तथा यशस्वी पुत्र प्राप्त होगा I
साधु से चमत्कारी फल प्राप्त कर विक्रमादित्य प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर लौटने लगे I राह में उनकी दृष्टी तीव्रता से दौड़ रही एक स्री पर पडी I दौड़ते-दौड़ते वह स्री एक कुँए के पास पहुँची और छलांग लगाने को जैसे ही उद्यत हुई, विक्रम ने उसे थाम लिया तथा आत्महत्या करने का कारण पूछा I इस पर स्री ने उन्हें बताया कि वह अनेक बार गर्भवती हुई परन्तु हर बार उसने एक कन्या को जन्म दिया, उसका एक भी पुत्र नहीं है I उसके पति को वंश आगे बढाने के लिए उत्तराधिकारी के रूप में एक पुत्र चाहिए I जब वह उसे पुत्र देने में असमर्थ रही, तो पति उसके साथ दुर्व्यवहार करने लगा और एक दिन उसे घर से निकाल दिया I स्री ने कहा की जाने के लिए उसके पास कोई और स्थान शेष नहीं है, अतः उसने आत्महत्या करने का उद्यम किया I विक्रमादित्य ने उसे समझाया कि आत्महत्या से बड़ा महा-पाप संसार में नहीं है I साधु से भेंट में मिला हुआ फल उस महिला को देते हुए उन्होंने कहा कि यदि उसका पति उस फल का सेवन करेगा, उसे अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होगी I इस घटना को कुछ दिन बीत गए, एक दिन एक ब्राह्मण विक्रम की राजसभा में आया तथा उसने वही फल उन्हें प्रदान किया जो उन्होंने कुछ दिन पूर्व उस स्री को देकर उसके प्राणों की रक्षा की थी I विक्रम को उस स्त्री की चरित्रहीनता का ज्ञान हो गया और वे मन ही मन अत्यंत दुखी हुए I उन्होंने ब्राह्मण को विदा किया और चमत्कारी फल लेकर अपनी पत्नी को दे दिया ताकि साधु के कहे अनुसार उनके घर एक परम तेजस्वी तथा यशस्वी पुत्र का जन्म हो I दुर्भाग्यवश विक्रम की पत्नी भी उस स्त्री की भाँती ही चरित्रहीन थी और राज्य के सेनापति से प्रेम करती थी I उसने वह फल सेनापति को दे दिया ताकि वह परम तेजस्वी तथा यशस्वी पुत्र का पिता बन सके I भाग्य की विडंबना ऐसी की वह दुराचारी सेनापति एक वेश्या के प्रेम में पागल था और उसने वह फल उस वेश्या को दे दिया I वैश्या ने सोचा कि उसका पुत्र चाहे लाख तेजस्वी तथा यशस्वी क्यों न हो, उसे सामाजिक प्रतिष्ठा कभी न प्राप्त होगी I वह गहनता से सोच-विचार करने के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंची कि उस चमत्कारी फल को खाने के उचित अधिकारी राजा विक्रमादित्य ही हो सकते हैं क्योंकि उनसे योग्य पुरुष पूरे संसार में और कोई नहीं था I यदि विक्रमादित्य का पुत्र अपने पिता की भाँती परम तेजस्वी तथा यशस्वी हुआ तो वह अपने पिता के जीवानोपर्यांत राज्य का संचालन सफलता पूर्वक करेगा तथा इसी में प्रजा का हित है I वैश्या ने यह सब सोचा तथा विक्रम के पास जाकर उन्हें वह फल भेंट कर दिया I फल को देखकर विक्रमादित्य आश्चर्यचकित रह गए I उन्हें अपनी पत्नी की चरित्रहीनता का ज्ञान हुआ तथा सेनापति के साथ उसके अवैध सम्बन्ध का पता चला I वे इतने दुखी हुए कि संसार की मोह-माया से पूर्णतया विमुख हो गए तथा अपने प्रिय अम्बावती राज्य का त्याग करके वन जाकर माता भद्रकाली की कठिन तपस्या में मग्न हो गए I
महाराज विक्रमादित्य देवताओं तथा मनुष्यों को समान रुप से प्रिय थे I इसलिए उनकी अनुपस्थिति में देवताओं के राजा इन्द्र ने अम्बावती राज्य की सुरक्षा के लिए एक शक्तिशाली देवता को नियुक्त कर दिया I वह देवता नृपविहीन राज्य का सफल संचालन करने लगा I अनेक वर्ष बीत गए और विक्रमादित्य का मन अपनी प्रजा को देखने को करने लगा I वे वन छोड़कर अम्बावती लौटने लगे और जैसे ही सीमा के निकट पहुंचे, इन्द्र द्वारा नियुक्त उस देवता ने उन्हें रोका I उसने कहा कि कोई भी उसके रहते राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता I इस पर विक्रमादित्य ने उससे युद्ध करके पराजित किया तथा अपना परिचय दिया I जब देवता को विश्वास हो गया कि उसे परास्त करने वाले विक्रमादित्य ही हैं, उसने उन्हें बताया कि उनका एक पूर्व जन्म का शत्रु अम्बावती के निकट आ पहुंचा है तथा उनका वध करने के लिए माता भद्रकाली की सिद्धि कर रहा है I वह दुष्ट उनका वध करने का हर संभव प्रयत्न करेगा, अतः वे अत्यंत सावधान रहें I देवता ने यह भी बताया कि यदि विक्रम ने उसका वध कर दिया तो दीर्घ काल तक वे निर्विघ्न राज्य करेंगे I इस प्रकार शत्रु के विषय में सब कुछ बताकर उस देवता ने विक्रम से अनुमति ली और स्वर्ग लौट गया I
इसके पश्चात विक्रम ने अम्बावती राज्य में प्रवेश किया तथा अपना राज्यभार ग्रहण कर लिया I उनकी चरित्रहीन पत्नी तब तक ग्लानि से विष खाकर मृत्यु वरण कर चुकी थी और सेनापति भी राज्य से पलायन कर मृत्यु को प्राप्त हो चुका थाI अब विक्रम का सारा राजकार्य सुचारु रूप से चलने लगा I परन्तु कुछ दिनों के पश्चात उनका वही पूर्व जन्म का शत्रु एक योगी के रूप में उनकी राजसभा में आ पहंचा I योगी ने उन्हें ठीक वैसा ही चमत्कारी फल भेंट किया जैसा वर्षों पहले पहाड़ की चोटी पर बैठे उस साधु ने प्रसन्न होकर उन्हें दिया था I विक्रम यह सोच कर प्रसन्न हुए कि अब वे उस फल का सेवन कर एक परम तेजस्वी तथा यशस्वी पुत्र प्राप्त करेंगे I पारितोषिक के बदले योगी ने विक्रम से सहायता का आग्रह किया I विक्रम सहर्ष ही उसकी बात मान गए तथा उसके साथ चल पड़े I योगी उन्हें लेकर एक श्मशान पहुंचा तथा बताया कि एक वृक्ष पर बेताल का निवास है I उसने यह भी कहा कि योग साधना के लिए उसे बेताल की आवश्यकता है और फिर विक्रम से अनुरोध किया कि वे बेताल को वृक्ष से उतार कर उसके पास लाएं I
विक्रम जब उस वृक्ष के निकट पहुंचे तो उन्होंने देखा कि बेताल वृक्ष से लटक रहा हैI विक्रम उस वृक्ष से बेताल को उतार कर कंधे पर लादकर लाने की चेष्टा करते परंतु चतुर बेताल रास्ते में विक्रम को एक कथा सुनाता तथा हर बार उनकी असावधानी का लाभ उठा कर उड़ जाता और वापस उसी वृक्ष पर जाकर लटक जाता I ऐसा बेताल ने चौबीस बार किया और पच्चीसवीं बार विक्रम जब उस वृक्ष से बेताल को उतार कर कंधे पर लादकर लाने लगे तो बेताल ने उन्हें बताया कि जिस योगी ने उसे लाने भेजा है वह दुष्ट और कोई नहीं बल्कि पूर्व जन्म का उनका वही शत्रु है जिसके विषय में स्वर्ग के देवता ने उन्हें सतर्क किया था I आज उसकी तांत्रिक सिद्धी की समाप्ति है तथा आज ही वह दुष्ट विक्रम की बलि दे देगा जब विक्रम माता भद्रकाली के समक्ष अपना मस्तक झुकाएगा I विक्रम की बलि से ही उसकी सिद्धि पूरी हो सकती थी I
विक्रम को देवता की कही बात का स्मरण आया कि शत्रु उनका वध करने का हर संभव प्रयत्न करेगा, अतः उन्हें अत्यंत सावधान रहने की आवश्यकता है I अब विक्रम को योगी की योजना का सम्पूर्ण ज्ञान हो चुका था, उन्होंने बेताल को धन्यवाद दिया तथा उसे कंधे पर लादकर योगी के पास आएI विक्रम के देखकर दुष्ट योगी प्रसन्नचित हो उठा तथा योजना अनुसार उसे माता भद्रकाली के समक्ष अपना मस्तक झुकाने को कहा I विक्रम को भली-भांति पता था कि अब उन्हें क्या करना है, उन्होंने योगी को मस्तक झुकाने की विधि दिखाने को कहा I जैसे ही योगी ने अपना मस्तक माता भद्रकाली के चरणों में झुकाया, विक्रम ने अपनी तलवार से उसकी गर्दन काट कर माता को उसकी बलि चढ़ा दी I माता बलि पाकर विक्रम से अत्यंत प्रसन्न हुईं तथा बेताल को उनके सेवक के रूप में नियुक्त कर दिया I माता ने कहा कि बेताल सदा-सर्वदा विक्रम की सेवा करेगा तथा स्मरण करते ही उनके समक्ष उपस्थित हो जाएगा I इस प्रकार माता भद्रकाली का आशिष प्राप्त करने के पश्चात राजा विक्रमादित्य अपने सेवक बेताल के साथ आनन्दपूर्वक अपने राज्य अम्बावती लौटे तथा अपना कार्यभार सुचारू रूप से संभालने लगे I कालांतर में विक्रामादित्य माता भद्रकाली के वरदान अनुसार अत्यंत गुणवान, चरित्रवान एवं पराक्रमी चक्रवर्ती राजा बने और उनका कीर्ति-ध्वज सर्वत्र लहरा उठा I
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