-------o रत्नमंजरी o-------
बात राजा विक्रमादित्य के युग की है I क्या आप कहना चाहते हैं कि राजा विक्रमादित्य को नहीं जानते ? तो आइए मैं आपको सम्पूर्ण कथा सुनाता हूँ, परम गुणवान, चरित्रवान एवं पराक्रमी, राजाओं के राजा, चक्रवर्ती महाराज विक्रमादित्य की कथा I
सिंहासन बत्तीसी की प्रथम पुतली रत्नमंजरी द्वारा कही कथा इस प्रकार है I यह कथा विक्रम के जन्म तथा सिंहासन प्राप्ति के विषय में है I आर्याव्रत में अम्बावती नामक प्रदेश था जिसपर राजा गंधर्वसेन का राज्य था I राजा गंधर्वसेन ने चार भिन्न-भिन्न जाति की स्रियों से विवाह किया था I एक थी ब्राहृण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य तथा चौथी शूद्र। ब्रह्मण रानी से गंधर्वसेन को एक पुत्र हुआ जिसका नाम ब्राहृणीत रक्खा गया I क्षत्रिय रानी ने शंख, विक्रम तथा भर्तृहरि नामक तीन पुत्रों को जन्म दिया I वैश्य रानी के पुत्र का नाम चंद्र रक्खा गया तथा शूद्र रानी ने धन्वन्तारि नामक एक पुत्र को जन्म दिया I
आगे चलकर ब्रह्मण रानी का पुत्र ब्राहृणीत अम्बावती राज्य का महामंत्री बना I परन्तु वह इतना योग्य न था कि सफलतापूर्वक अपने उत्तरदायित्व का निर्वाहन कर पाता I अपने कार्य में असफल होकर वह अम्बावती से पलायन कर गया और धरानगरी में जा बसा I वहाँ उसने ऊंचा स्थान प्राप्त किया तथा अवसर का लाभ उठाकर वहाँ के राजा का वध करके स्वयं राजा बन गया I कुछ समय तक धरानगरी पर राज्य करने के पश्चात जब ब्राहृणीत उज्जैन पहुंचा, तो दुर्भाग्य से उसकी मृत्यु हो गई I
इसके पश्चात क्षत्रिय रानी का ज्येष्ठ पुत्र शंख धरानगरी का राजा बना I राजा बनते ही उसने सैन्य शक्ति एकत्रित की तथा अत्यंत शक्तिशाली बन गया I शंख को इस बात की शंका हुई कि भविष्य में उसके पिता राजा गंधर्वसेन विक्रम को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते हैं क्योंकि विक्रम ही योग्यता में सर्वश्रेष्ठ थे I एक दिन जब राजा गंधर्वसेन निद्रामग्न थे, शंख ने उनका वध कर दिया तथा अपनी एकत्रित की हुई सैन्य शक्ति की सहायता से अम्बावती प्रदेश को अपने अधीन कर लिया I राजा गंधर्वसेन की हत्या का समाचार पूरे प्रदेश में जंगल के आग की तरह फैला और सभी राजकुमार अपने प्राणों की रक्षा के लिए अम्बावती से पलायन कर गए I पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर विक्रम अत्यंत दुखी हुए । कदाचित सभी राजकुमारों में वही पिता से सर्वाघिक प्रेम करते थे । विक्रम भी अपने अन्य भाईओं कि भाँती अम्बावती से पलायन कर गए । विक्रम को छोड़कर बाकी सभी भाइयों का पता शंख को चल गया और उसने उन सब की भी ह्त्या कर दी । बहुत प्रयास के बाद शंख को पता चला कि घने जंगल में सरोवर के किनारे एक कुटिया बनाकर विक्रम निवास कर रहा है तथा कंदमूल, फल इत्यादि खाकर घनघोर तपस्या में मग्न है । वह उसे मारने की योजना प्रस्तुत करने लगा और एक तांत्रिक को उसने अपने षडयंत्र में सम्मिलित कर लिया ।
योजना अनुसार दुष्ट तांत्रिक ने विक्रम को माता भद्रकाली की साधना के लिए प्रेरित किया I योजना कुछ इस प्रकार थी की जैसे ही माता के सामने नमन करने हेतु विक्रम अपना शीश झुकाता, मंदिर में पहले से ही छुपा शंख अपनी तलवार के एक ही वार से उसका सर धड से अलग कर डालता I परन्तु विक्रम ने अपने तपोबल से समय रहते ही खतरे को जान लिया और तांत्रिक को सिर झुकाने की विधि दिखाने को कहा । मंदिर में छुपे हुए शंख ने विक्रम के धोखे में अपने तांत्रिक मित्र की हत्या कर दी । इसके पश्चात शंख तथा विक्रम के बीच भयंकर युद्ध हुआ, अंत में विक्रम ने अपनी तलवार से जलते हुए यज्ञकुंड की अग्नी में शंख के सिर की आहूति दे दी I इस प्रकार विक्रम ने दुष्ट शंख से अपने पिता तथा भाईओं की हत्या का प्रतिशोध लिया । माता भद्रकाली ने विक्रम की तपस्या तथा दी हुई बलि से संतुष्ट होकर उसे साक्षात दर्शन दिए । माता ने विक्रम को अत्यंत गुणवान, चरित्रवान एवं पराक्रमी चक्रवर्ती राजा बनने का वरदान भी दिया । विक्रम अम्बावती लौटे और फिर उनका राज्यारोहण हुआ। अब वे विक्रम नहीं बल्कि राजा विक्रमादित्य कहलाने लगे, अत्यंत गुणवान, चरित्रवान एवं पराक्रमी राजा विक्रमादित्य ।
एक बार की बात है, महाराज विक्रमादित्य शिकार करने घने जंगल में गए I एक मृग का पीछा करते-करते कब वे अपने सैनिकों से अलग होकर दूर निकल गए, इस बात का उन्हें आभास न हुआ और वे उस घने जंगल में भटकने लगे I उन्हें रास्ता नहीं सूझ रहा था तो एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ चारों दिशाओं में वे अपनी दृष्टि दौडाने लगे I कुछ दूरी पर उन्हें एक भव्य महल दिखा और निकट आकर पता चला कि वह महल कालकूट नमक नाग का है जो कि नागलोक के राजा कालजयी का सेनापति है । विक्रमादित्य ने सहायता पाने की लालसा में कालकूट नाग के महल में प्रवेश किया । एक मनुष्य को अपने महल में देख, कालकूट क्रोध से तिल-मिला उठा । उसने विक्रमादित्य पर आक्रमण कर दिया परन्तु उसे यह ज्ञात नहीं था कि उन्हें माता भद्रकाली का वरदान प्राप्त था । अंत में उनकी शक्ति के सामने उसे अपना शीश झुकाना पड़ा । हार मानकर कालकूट नाग ने विक्रमादित्य से मित्रता कर ली और उनसे आग्रह किया कि वे उसका अतिथि बनना स्वीकार करें । विक्रमादित्य ने प्रसन्नता पूर्वक अपने मित्र का प्रस्ताव स्वीकार किया और कुछ दिनों के लिए उसके साथ उस भव्य महल में निवास करने लगे ।
एक दिन कालकूट ने बात ही बात में कहा कि विक्रमादित्य बड़े ही यशस्वी तथा सर्वशक्तिमान राजा बन सकते हैं, यदि नागलोक के राजा कालजयी उनका राजतिलक करें । कालकूट ने यह भी बताया कि भगवान शिव द्वारा प्रदत्त अपना स्वर्ण सिंहासन यदि महाराज कालजयी विक्रमादित्य को दे दें तो वे चक्रवर्ती राजा बन जांएगे । माता भद्रकाली का दिया हुआ वरदान सत्य हुआ जिसके परिणाम स्वरुप महाराज कालजयी ने विक्रमादित्य का न केवल राजतिलक किया, बल्कि प्रसन्नतापूर्वक उन्हें अपना स्वर्ण सिंहासन भी भेंट कर दिया ।
विक्रमादित्य अपने नगर अम्बावती लौटे तथा उस स्वर्ण सिंहासन पर विराजकर अपना राजभार अति कुशलता पूर्वक संभालने लगेI उनके मान-सम्मान व प्रतिष्ठा में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होने लगी I उन्होंने एक महान धर्मं अनुष्ठान करने का संकल्प किया I तीनों लोकों से अतिथि अम्बावती नगर पधारे I विक्रामादित्य ने उनका उचित स्वागत-सत्कार किया, सवा लाख गायें दान में दीं, सवा लाख कन्यादान किए, ब्राह्याणों को धन दिए, अपने नगर वासिओं का एक वर्ष का कर माफ़ कर दिया और एक वर्ष की अवधी तक माता भद्रकाली के मंदिर में बैठकर वेद-पुराणों का पाठ करते रहे I इस प्रकार उन्होंने अपना धर्मानुष्ठान सफलतापूर्वक सम्पूर्ण किया I पूरे संसार के लोग धन्य–धन्य करने लगे, उनका प्रताप तीनों लोकों में छा गया और उनका कोई शत्रु न रहा I कालांतर में विक्रामादित्य माता भद्रकाली के वरदान अनुसार अत्यंत गुणवान, चरित्रवान एवं पराक्रमी चक्रवर्ती राजा बने और उनका कीर्ति-ध्वज सर्वत्र लहरा उठा ।
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