भूमिका
पिछले कुछ सालों में प्ले स्कूल, किंडर गार्डन की जरुरत और मांग काफी बड़ी है। छोटे कस्बो, शहरों में भी इनकी संख्या काफी बढ़ गई है। ये आज की जरुरत है। बड़े शहरों में डे बोर्डिंगो का सिलसिला भी चल निकला है। इनकी संख्या बदलते हालात का सबसे बड़ा उदाहरण है। टूटते संयुक्त परिवारों ने एकल परिवारों की संख्या बढा दी है। माता पिता दोनों वर्किंग हैं। फुल टाइम आया या क्रेचों की अपनी समस्याएं हैं। ऐसे में अच्छे डे बोर्डिंग ही उनके बच्चों के लिए विकल्प रह जाते हैं, जहां बच्चे को होमवर्क कराने के बाद वक़्त पर खाना, नाश्ता खिलाया और दिन में सुला दिया जाता है। बच्चा जल्दी से जल्दी स्कूल माहौल का आदी भी हो जाता है, इसलिए माता पिता उसको प्रिपैरेटरी स्कूल में डालते हैं। वहां भी नाच गाने खेल की प्रतियोगिता होती रहती है और सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले बच्चे को पुरस्कार दिया जाता है। इससे बच्चे में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा होती है, जो उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। प्रिपैरेटरी यानी तैयारी। प्राइमरी स्कूल में जाने की तैयारी। अच्छे स्कूल में एडमिशन के लिए बच्चों को एक अलग तरह की प्रतिस्पर्धा से गुजरना होता है। इसकी तैयारी प्ले स्कूल में हो जाती है।
प्ले स्कूल चुने जाने का आधार
माता पिता ऐसे प्ले स्कूल में अपने बच्चों को डालना पसंद करते हैं, जहां के ज्यादा बच्चों को अच्छे स्कूल में एडमिशन मिला हो। वैसे तो स्कूल जाने की उम्र 5 साल है, पर अब माहौल ही ऐसा बन गया है की बच्चा 3 साल की उम्र में प्ले स्कूल जाने लगता है। जहां वह स्कूल के कायदे सीखता है। माता पिता को अलग से उसके इंटरव्यू की तैयारी नहीं करानी होती है। वह अच्छे स्कूल में दिए जाने वाले टेस्ट में सफल होने के साथ इंटरव्यू का सामना करने के लिए भी तैयार होकर निकलता है। इंटरव्यू में उससे जिस स्मार्टनेस की उम्मीद की जाती है, उसमें वह खरा उतरता है। माता पिता भी घर में उसकी तैयारी कराते रहते हैं। यह प्रतियोगिता का दौर है, जहां सफल होने का संस्कार बचपन से मिलना जरुरी है। जब बच्चा मेहनत करता है, आगे बढ़ता है, तो उसमें सफल होने की भावना ज्यादा रहती है। उसमें यह आत्मविश्वास पैदा होता है की वह फर्स्ट आने और ईनाम पाने के लायक है। लेकिन ऐसा भी देखने में आया है की जब उससे बार बार ये उम्मीद लगाई जाती है कि उसे सफल होना ही है, तब उसके मन में असुरक्षा बोध बढ़ता है। मन में यह डर आ जाता है कि कहीं में पीछे न रह जाऊं, जबकि यह सोच उनके मन में नहीं आनी चाहिए।
कौन से विषय लें
अच्छे नंबर लाने का क्रम जो प्ले स्कूल से शुरू होता है, वह क्लास बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है। आज कला या विज्ञान विषय लेने से फर्क नहीं पड़ता, हर विषय में आगे बढ़ने, उसे व्यवसाय के रूप में चुनने के कई विकल्प मौजूद हैं। अब विज्ञान विषयों को विशेष सम्मान से देखने और कला विषयों को थोड़ा हिकारत से देखने का समय बीत चुका है। यहां तक की ज्योतिष विषय में भी अच्छे भविष्य के विकल्प मौजूद हैं। कला या विज्ञान विषय लेने का असमंजस खत्म हो चुका हैं।
प्राइवेट यूनिवर्सिटी
फैशन डिजाइनिंग, इंजीनियरिंग, मेडिकल, पॉलीटेक्रीकों की भरमार है। बहुत सारी प्राइवेट यूनिवर्सिटी भी है, जहां पढ़कर वे अपने सपने साकार कर सकते हैं। लेकिन इसका एक नकारात्मक पक्ष भी है कि जब प्राइवेट यूनिवर्सिटी धड़ल्ले से खुल रही होती हैं, ज़ोरों शोरों से एडमिशन लिए जा रहे होते हैं, तब कोई नहीं बोलता। जब आधा सत्र निकल जाता है, तब सरकार नींद से जागती है और अचानक उस विश्वविधालय की मान्यता समाप्त कर देती है। बिना ये सोचे की इससे छात्रों का कितना नुक्सान होगा। हर वर्ग के बच्चे के लिए शिक्षित होने के रास्ते खुले हैं। हर व्यक्ति अपनी हैसियत के हिसाब से अपने बच्चे को पढ़ा सकता है। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में भी अंग्रेजी माध्यम का विकल्प है। बहुत अच्छे स्कूल में भी हैं, पर वे महंगें हैं।लेकिन इससे निराश होने की जरुरत नहीं है। यदि बच्चे को अच्छे नंबर लाने का संस्कार और सफल होने का उत्साह माता पिता ने दिया है, तो स्कूल चाहे मध्यम श्रेणी का हो, बच्चा आगे बढ़ने का रास्ता ढूंढ़ ही लेता है। जरुरी है उसमें संघर्षो से ना घबराने का जज्बा पैदा करना, जो उसे जिन्दगी में कभी हारने नहीं देगा।